ऊं ब्रह्मेति विचार लगाया
अणहद बाणी सबद सुणाया
जो *खट* *भग* भगवान उपाया
कर *भगवां* भगवान दिराया
*ऐश्वर्य* *जस* *धरम* सु पाया
*लिछमी* *ग्यान* *विराग* लखाया
ऐश्वर्य चादर जस जल धोई
ग्यान गेरु कर रंगत होई
लिछमी विद्या रूप सुनवाई
धरम गुरु निज ग्यान लखाई
त्याग विराग जोग सूं पाया
श्री गुरु गोरखनाथ सुणाया
या *भग* से भगवा *सिद्ध* होया
सो सिद्ध जोग भगत कर जोया
*जसोनाथ* गुरु देव लखाया
भगवा जा सूं पूरन साया
यह हमारे संप्रदाय का *भगवा* *मंत्र* है।
जब भगवा वस्त्र गेरु द्वारा रंगा जाता है उस समय यह मंत्र बोला जाता है।
इस मंत्र में *खट* *भग* का मतलब भाषा अपभ्रंश में *षट* भग है
षट् भग का मतलब छह भग होते हैं
इस मंत्र में स्पष्ट भी है
*ऐश्वर्य* , *जस* (यश), *धरम* (धर्म /मर्यादा), *लिछमी* (लक्ष्मी /श्री) *ग्यान* (ज्ञान), *विराग* (वैराग्य)।
कहा जाता है कि जिस महापुरुष में ये छह भग या कहो गुण होते हैं
वह *भगवान* कहलाता है।
यह भगवा मंत्र हमारी विशेष उपलब्धि है।
यह मंत्र किसने कहा?, किसने इसको अधिकृत किया?,क्यों अधिकृत किया?
इतना महान साहित्य !
इतना गुण साहित्य !
यह सब विचारणीय विषय है।
इससे स्पष्ट होता है कि हमारी *साहित्यिक* विरासत बहुत ही समृद्ध है।
हालांकि हमारा सिद्ध संप्रदाय साहित्य अभी भी लिखित से अधिक मौखिक रूप में अधिक है।
और मौखिक होना कोई अनहोनी नहीं है
*वेद* बहुत काल तक मौखिक ही स्मरण रखें गये थे।
आज तो हर तरह के साधन है और लोगों की स्मरण शक्ति भी दिनों दिन क्षीण भी होती जा रही है और इसलिए जितनी जल्दी हो सके। हमारे हर *सबद* को *लिपिबद्ध* करना हमारा कर्तव्य बनता है।
यह भगवा मंत्र लगभग हमारे संप्रदाय की हर लिखित पुस्तक में मिल भी जाएगा।
मैंने इस मंत्र के स्रोत की मूल जानने की कोशिश मेंकी तो यह संस्कृत में *विष्णु* *पुराण* में मिलता है।
*ऐश्वर्यस्य* *समग्रस्य* *धर्मस्य* *यशस* : *श्रिय* : ।
*ज्ञानवैराग्योश्चैव* *षण्णां* *भग* *इतीरणा* ।।
( विष्णु पुराण 6/5/74)
समाज के ज्ञानी और प्रबुद्ध जनों को हमारे सिद्ध संप्रदाय के समृद्ध साहित्य की मूल, शब्दार्थ, व्याख्या (सरल भाषा में समझाना )
यह आवश्यक है
उदाहरण के लिए *ईशोपनिषद* में एक श्लोक है
*ऊं* *पुर्णमद* *:* *पुर्णमिदं* *पुर्णात* *पुर्णमुदच्यते* ।
*पुर्णस्य* *पुर्णमादाय* *पुर्णमेवावशिष्यते* ।।
अब इसका शाब्दिक अर्थ है यह भी पुर्ण है ,वह भी पुर्ण है,यह पुर्ण उस पुर्ण से निकला है।
इस पुर्ण में से इस पुर्ण के निकल जाने के उपरांत भी यह भी पुर्ण है और वह भी पुर्ण है
अब इस शब्दार्थ से हर कोई तो समझ नहीं सकता है।
इसलिए उदाहरण से समझाया गया है समुद्र से एक घड़ा भर कर निकाला गया।
मतलब समुद्र पुर्ण है इस पुर्ण में से एक घड़ा *भरकर*( पुर्ण ) निकाला गया।
घड़ा पानी से भरा है इसलिए घड़ा भी पुर्ण है
अब पुर्ण (समुद्र) से दुसरा पुर्ण(घड़ा) भरकर निकाल लेने के बावजूद वह (समुद्र ) भी पुर्ण है और यह पुर्ण (घड़ा) भी पुर्ण है।
इस प्रकार परमात्मा से जीवात्मा बनता है
अब जीवात्मा भी पुर्ण है
और परमात्मा तो पुर्ण है ही।
यह हमारे हिंदू ग्रंथों का ज्ञान।
जैसे छोटे बच्चों को ग्लोब दिखाकर पृथ्वी के बारे में समझाया जाता है।
इसी तरह गुढार्थ वाले श्लोकों की सरल व्याख्या होती है
कुछ लोग गुरु जसनाथ जी के कहे उपदेशों का शब्दार्थ और व्याख्या नहीं जानने के कारण मनमाना अर्थ श्रोताओं को बता देते हैं ।यह उचित नहीं जान पड़ता।
इसलिए गुरु जसनाथ जी के उपदेशों के गुढार्थों को समझाना भी अति आवश्यक है
*सिद्ध* *संप्रदाय* के साहित्य में विश्व का उच्चतम स्तर का ज्ञान भरा है।
क्योंकि यह ज्ञान किसी पाठशाला में नहीं प्रत्यक्ष *ईश्वरीय* *शक्ति* से प्राप्त ज्ञान है।